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योनि॑ष्ट इन्द्र नि॒षदे॑ अकारि॒ तमा नि षी॑द स्वा॒नो नार्वा॑। वि॒मुच्या॒ वयो॑ऽव॒सायाश्वा॑न्दो॒षा वस्तो॒र्वही॑यसः प्रपि॒त्वे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yoniṣ ṭa indra niṣade akāri tam ā ni ṣīda svāno nārvā | vimucyā vayo vasāyāśvān doṣā vastor vahīyasaḥ prapitve ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

योनिः॑। ते॒। इ॒न्द्र॒। नि॒ऽसदे॑। अ॒का॒रि॒। तम्। आ। नि। सी॒द॒। स्वा॒नः। न। अर्वा॑। वि॒ऽमुच्य॑। वयः॑। अ॒व॒ऽसाय। अश्वा॑न्। दो॒षा। वस्तोः॑। वही॑यसः। प्र॒ऽपि॒त्वे ॥ १.१०४.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:104» मन्त्र:1 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:18» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब नव ऋचावाले एकसौ चार सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में फिर सभापति क्या करे, यह उपदेश कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) न्यायाधीश ! (ते) आपके (निषदे) बैठने के लिये (योनिः) जो राज्यसिंहासन हम लोगों ने (अकारि) किया है (तम्) उसपर उस आप (आ निषीद) बैठो और (स्वानः) हींसते हुए (अर्वा) घोड़े के (न) समान (प्रपित्वे) पहुँचने योग्य स्थान में किसी समय पर जाना चाहते हुए आप (वयः) पक्षी वा अवस्था की (अवसाय) रक्षा आदि व्यवहार के लिये (अश्वान्) दौड़ते हुए घोड़ों को (विमुच्य) छोड़ के (दोषा) रात्रि वा (वस्तोः) दिन में (वहीयसः) आकाश मार्ग से बहुत शीघ्र पहुँचानेवाले अग्नि आदि पदार्थों को जोड़ो अर्थात् विमानादि रथों को अग्नि, जल आदि की कलाओं से युक्त करो ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। न्यायाधीशों को चाहिये कि न्यायासन पर बैठके चलते हुए प्रसिद्ध शब्दों से अर्थी-प्रत्यर्थी अर्थात् लड़ने और दूसरी ओर से लड़नेवालों को अच्छी प्रकार समझाकर प्रतिदिन यथोचित न्याय करके उन सबको प्रसन्नकर सुखी करें। और अत्यन्त परिश्रम से अवस्था की अवश्य हानि होती है जैसे डांक आदि में अति दौड़ने से घोड़ा बहुत मरते हैं, इसको विचारकर बहुत शीघ्र जाने-आने के लिये क्रियाकौशल से विमान आदि यानों को अवश्य रचें ॥ १ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स सभापतिः किं कुर्यादित्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे इन्द्र ते निषदे योनिः सभासद्भिरस्माभिरकारि तं त्वमानिषीद स्वानोऽर्वा न प्रपित्वे जिगमिषुस्त्वं वयोऽवसायाश्वान्विमुच्य दोषा वस्तोर्वहीयसोऽभियुङ्क्ष्व ॥ १ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (योनिः) न्यायासनम् (ते) तव (इन्द्र) न्यायाधीश (निषदे) स्थित्यर्थम् (अकारि) क्रियते (तम्) (आ) (नि) (सीद) आस्व (स्वानः) शब्दं कुर्वन् (न) इव (अर्वा) अश्वः (विमुच्य) त्यक्त्वा। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (वयः) पक्षिणो जीवनं वा (अवसाय) रक्षणाद्याय (अश्वान्) वेगवतस्तुरङ्गान् (दोषा) रात्रौ (वस्तोः) दिने (वहीयसः) सद्यो देशान्तरे प्रापकानग्न्यादीन् (प्रपित्वे) प्राप्तव्ये समये स्थाने वा। प्रपित्वेऽभीक इत्यासन्नस्य, प्रपित्वे प्राप्तेऽभीकेऽभ्यक्ते। निरु० ३। २०। ॥ १ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। न्यायाधीशैर्न्यायासनेषु स्थित्वा प्रसिद्धैः शब्दैरर्थिप्रत्यर्थीन् संबोध्य प्रतिदिनं यथावन्न्यायं कृत्वा प्रसन्नान्संपाद्य सर्वे ते सुखयितव्याः। अतिपरिश्रमेणावश्यं वयोहानिर्भवतीति विमृश्य त्वरितगमनाय क्रियाकौशलेनाग्न्यादिभिर्विमानादियानानि संपादनीयानि ॥ १ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात सभापती राजा व प्रजा यांच्या योग्य व्यवहाराच्या वर्णनाने या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे ॥

भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. न्यायाधीशांनी न्यायासनावर बसून योग्य शब्दांनी वादी व प्रतिवादी यांना चांगल्या प्रकारे समजावून प्रत्येक दिवशी योग्य न्याय करून त्या सर्वांना प्रसन्न करून सुखी करावे. अत्यंत परिश्रमाने अवस्थेची हानी होते. अत्यंत धावण्याने गाडीला जोडलेले घोडे मृत्यू पावतात हे जाणून तात्काळ जाण्यायेण्यासाठी क्रियाकौशल्यपूर्वक विमान इत्यादी याने तयार करावीत.